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क्या कभी सच हो पायेगा राजस्थान में किसी जाट का मुख्यमंत्री बनने का सपना?

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राजस्थान क्षेत्रफल की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा प्रांत है। यहां करीबन 8 करोड़ की आबादी निवास करती है जिसमें से सबसे अधिक करीबन 13-14 प्रतिशत जाट समाज के लोग आते हैं। प्रदेश की राजनीति में जाटों का हमेशा दबदबा रहा है। सबसे अधिक संख्या में विधायक व सांसद भी जाट ही निर्वाचित होते हैं। मगर इतना सब होते हुए भी राजस्थान में आज तक किसी भी पार्टी से जाट समाज का व्यक्ति मुख्यमंत्री नहीं बन पाया है। जब-जब विधानसभा के चुनाव होते हैं तब जरूर जाट समाज के व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाने की बातें चलती हैं। मगर चुनाव होने के बाद जाट समाज का व्यक्ति मुख्यमंत्री नहीं बन पाता है। 

राजस्थान में जाट समाज आजादी के समय से ही कांग्रेस का सबसे बड़ा समर्थक वोट बैंक रहा है। आज भी जाटों का झुकाव कांग्रेस की तरफ बना हुआ है। लेकिन मौजूदा विधानसभा चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल से ऐसा कोई जाट नेता नहीं है जो मुख्यमंत्री की रेस में शामिल हो सके।

नागौर के सांसद हनुमान बेनीवाल ने पिछले विधानसभा चुनाव में जरूर अपनी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा था और तीन विधानसभा सीटों पर जितने में सफल रहे थे। उस समय हनुमान बेनीवाल का दावा था कि राजस्थान में हाशिये पर पहुंच गई जाट राजनीति को वह अपनी पार्टी के माध्यम से मुख्य धारा में लायेंगे। 2019 के लोकसभा चुनाव में हनुमान बेनीवाल भाजपा से गठबंधन कर नागौर से लोकसभा चुनाव लड़कर सांसद बन गए थे। इस बार हनुमान बेनीवाल उत्तर प्रदेश के चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी से गठबंधन कर विधानसभा चुनाव में उतरे हैं। लेकिन 200 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा करने वाले बेनीवाल की पार्टी महज 78 सीटों पर ही अपने प्रत्याशी उतर पाई है। खुद को जाट आइकॉन के रूप में पेश करने वाले हनुमान बेनीवाल ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सहित कई बड़े नेताओं के सामने प्रत्याशी नहीं उतार कर उन्हे वाक ओवर दे दिया है। वैसे भी हनुमान बेनीवाल के साथ अन्य जाति के मतदाता नहीं जुड़ पाए हैं।

राजस्थान में आजादी के बाद से ही कांग्रेस की सरकार बनती रही है। कांग्रेस की सरकारों में नाथूराम मिर्धा, चौधरी कुंभाराम आर्य, परसराम मदेरणा, कमला बेनीवाल, रामनिवास मिर्धा, रामदेव सिंह महरिया, दौलत राम सारण, सुमित्रा सिंह, रामनारायण चौधरी, शीशराम ओला, चौधरी नारायण सिंह, हेमाराम चौधरी, महादेव सिंह खंडेला, लालचंद कटारिया जैसे प्रभावशाली जाट नेता शामिल होते रहे थे। लेकिन इनमें से कोई भी नेता राजस्थान का मुख्यमंत्री नहीं बन पाया। 1973 में रामनिवास मिर्धा मुख्यमंत्री पद के चुनाव में हरदेव जोशी से महज एक वोट से हार गए थे। इसके साथ ही राजस्थान में जाट मुख्यमंत्री बनने से रह गया था। 

1998 के विधानसभा चुनाव में परसराम मदेरणा को चेहरा बनाकर कांग्रेस ने चुनाव लड़ा था और भारी बहुमत प्राप्त किया था। लेकिन दिल्ली की राजनीति में परसराम मदेरणा पराजित हो गए और अशोक गहलोत को राजस्थान का मुख्यमंत्री बना दिया गया। 2008 के विधानसभा चुनाव में भी केंद्रीय मंत्री शीशराम ओला अशोक गहलोत के सामने मुख्यमंत्री के दावेदार बने थे मगर अशोक गहलोत को ही मुख्यमंत्री बनाया गया। इस तरह जाट नेताओं को तीन बार कांग्रेस में मुख्यमंत्री बनने के अवसर मिले मगर तीनों ही बार वह असफल हो गए। वर्तमान समय में देखें तो आज राजस्थान की राजनीति में किसी भी जाट नेता का इतना बड़ा कद नहीं है जो मुख्यमंत्री पद की दावेदारी कर सके। प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा तीसरी बार के विधायक हैं। लेकिन मंत्रिमंडल में उनको भी शिक्षा राज्य मंत्री ही बनाया गया था।

हालांकि भाजपा ने भी अब जाटों पर अपनी पकड़ बनाने शुरू कर दी है। इस बार के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 30 से अधिक जाट प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं। विधानसभा चुनाव से पहले जाट समाज के डॉक्टर सतीश पूनियां को भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष भी बनाया गया था। लेकिन भाजपा में जाट मुख्यमंत्री बनने की बात सोची भी नहीं जा सकती है। क्योंकि जाट समाज आज भी मूल रूप से कांग्रेस से ही जुड़ा हुआ है। इसलिए भाजपा की बजाय जाट समाज की कांग्रेस में अधिक मजबूत दावेदारी बनती है।

कभी केंद्र की राजनीति में बलराम जाखड, कुंवर नटवर सिंह मजबूत जाट नेता बन कर उभरे थे। इन्होंने बहुत से युवा जाट नेताओं को आगे भी बढ़ाया था। मगर यह लोग केंद्र की राजनीति तक ही सीमित होकर रह गए। इन्होंने कभी भी प्रदेश की राजनीति में मुख्यमंत्री बनने का प्रयास नहीं किया। कांग्रेस पार्टी अपने विधानसभा के चुनावी संकल्प पत्र में सरकार बनने पर जातिगत जनगणना करवाने की बात कह रही है। यदि प्रदेश में जातिगत जनगणना होती है तो बिहार की तरह राजस्थान में भी सबसे बड़ी आबादी जाटों की ही होगी। तब प्रदेश की राजनीति में जाटों की असली ताकत का अहसास होगा।

राजस्थान में 7 अप्रैल 1949 से लेकर अब तक 25 मुख्यमंत्री रह चुके हैं। जिनमें आठ बार ब्राह्मण, पांच बार बनिया, पांच बार राजपूत, एक बार मुस्लिम, एक बार खटीक, एक बार कायस्थ, तीन बार माली मुख्यमंत्री बने हैं। इस सूची में जाट समाज के एक भी व्यक्ति का नाम नहीं है। जाट समाज की नेता कमला बेनीवाल को जरूर एक बार उप मुख्यमंत्री बनाया गया था। राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर जरूर सरदार हरलाल सिंह, नाथूराम मिर्धा, रामनारायण चौधरी, परसराम मदेरणा, चौधरी नारायण सिंह, डॉक्टर चंद्रभान, गोविंद सिंह डोटासरा सहित कई जाट नेता रह चुके हैं। मगर मुख्यमंत्री का पद उनसे आज भी दूर ही है।

राजस्थान में कांग्रेस की पूरी राजनीति मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के इर्द-गिर्द घूमती है। अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने धीरे-धीरे एक-एक कर जाट नेताओं को किनारे लगा दिया ताकि उनकी कुर्सी पर जाटों की दावेदारी नहीं हो सके। 1998 में जब गहलोत पहली बार मुख्यमंत्री बने थे उस समय परसराम मदेरणा, डॉ. बलराम जाखड, कुंवर नटवर सिंह, शीशराम ओला, रामनिवास मिर्धा, चौधरी नारायण सिंह, हेमाराम चौधरी जैसे वरिष्ठ जाट नेता राजनीति में सक्रिय थे। मगर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने धीरे-धीरे सभी को किनारे कर दिया। इतना ही नहीं 1998 में मुख्यमंत्री बनने के बाद अशोक गहलोत ने कांग्रेस में वरिष्ठ नेता रहे नवल पंडित नवल किशोर शर्मा, पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाड़िया, शिवचरण माथुर और हीरालाल देवपुरा जैसे नेताओं को भी किनारे लगा दिया था।

आज राजस्थान की राजनीति में मजबूत नेता नहीं होने के कारण जाट मतदाता किसी एक पार्टी के साथ नहीं बंधे हुए हैं। सभी राजनीतिक दलों में जाट नेताओं को महत्व मिलने लगा है। प्रदेश में भाजपा के 24 लोकसभा सांसदों में से पांच जाट समाज के हैं। जिनमें से कैलाश चौधरी केंद्र सरकार में कृषि राज्य मंत्री के पद पर है। वहीं करीबन एक दर्जन से अधिक जाट समाज के विधायक भाजपा में भी हैं। राजस्थान में सबसे अधिक आबादी होने के बावजूद भी जाट समाज का मुख्यमंत्री नहीं बन पाया है इसके लिए स्वयं जाट समाज के नेता भी जिम्मेदार है। प्रदेश की राजनीति में जब भी जाट समाज के व्यक्ति का मुख्यमंत्री बनने के लिए अवसर आया उस समय जाट नेताओं ने ही उसकी टांग खिंचाई कर दी। जिस कारण जाट समाज का व्यक्ति मुख्यमंत्री नहीं बन पाया। जब तक जाट समाज के सभी नेता एकजुट नहीं होंगे तब तक राजस्थान की राजनीति में उनकी ताकत महत्वहीन हीं बनी रहेगी।

-रमेश सर्राफ धमोरा 

(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके लेख देश के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं।)

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